रिमझिम फुहार
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अक्ल का अंधा….
साँझ ढली
थोड़ी हवा चली
और चुपके से
आ बैठा कोई
मेरे पहलु में
दिल तिरे गम से
पुरअंदाज़ नम
उस पर
तिरी तब्बुसुम की
अठखेलिया
नमी को बस
आँखों तक ले आती है
तुम मिरा हाथ
अपने हाथो में लिए
बस निकल पडती हों
दुनिया के तमाम बाजारों में
छोटे बड़े हर खिलौनों पे
आसमाँ को छुती तुम्हारी जिद
और मिरी हमेशा की तरह
ज़मीं पे टिके रहने की बेबसी
क्या गज़ब मोह्हबत है
जिसे सिर्फ तुम समझती हों
और मै नासमझ
जिंदगी भर
इसे नासूर की तरह
अपने बदन पे लपेटे
अपने को अश्को को
बदनाम करता रहा
सच में
इश्क
और
इबादत में फर्क नहीं
जिसने की
सिर्फ वो जानता है…..
इक गुनाहगार की तरह
जीते हुए भी तिरी चाहत
मिरी खातिर
खुदा की अजब नेमत है
इस अक्ल के अंधे को……
….विनय सक्सेना
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