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मेरी माँ मुझे पुकारे……
इक अंधियारी रात है और
वक्त कठिन घर आया है
आओ मिलकर दीप जलाये
घनघोर अँधेरा छाया है
हम खुद से पूछे गलती अपनी
और खुद हम अब गलती माने
बहुत सो लिए मध्होशी में
अब कठिन सवेरा आया है
हम तो है अब बीत चुके
जीवन की कच्ची गलियों में
और देख रहे मासूम मुखो पे
इक अबूझ सा मातम छाया है
क्यू कर अब मेरी बहने रोती
क्यू माता मेरी विशीप्त लगे
क्यू अब इक शापित मौसम
हम सबके घर में आया है
क्यू मस्जिद तोड़ी क्यू मंदिर टूटे
क्यू आग लगी बाजारों में
घर का चूल्हा जला न कोई
कैसी आग वो घर लाया है
टूटी चूड़ी लिए अभागन
अब करनी मेरी पूछ रही
क्या बस इस दिन खातिर
राखी त्यौहार बनाया है
हम सब छोड के अंधे बन के
मंजिल पर अपनी निकल पड़े
बेच के अपनी इज्ज़त शोहरत
क्या हमने अब पाया है
हम उनकी अब ठोकर खाते
जो कदमो में थे पड़े हुए
भूल के अपना अनुशासन
अब इक निष्ठुर शासन पाया है
जिसको अब निज ज्ञान नहीं
अपना जिसको अभिमान नहीं
हाथ में उसको दे बागडोर
खुद पाप बहुत कमाया है
अब भी वक्त है माँ मेरी कहती
क्यू दूध मिरा तू भूल गया
क्यू भूल गया तू लहू पिता का
क्यू भाई का कान्धा बिसराया है
तेरे और तिरे भाई के कंधे
मज़बूत बहुत है अब भी मगर
जो तूने हिम्मत खो दी तो
समझो भाई भी हार गया है
अब भी वक्त है सब बीता नहीं
और तेरा लाल भी अब होता बड़ा है
वो नन्हा अब चला जीतने
और तू समझे सब हार गया है
क्यू तू अब आश को छोडे
छोड निराशा अब आगे बढ
नया सवेरा आता आंगन
और तू अब भी अलसाया है……
… विनय सक्सेना
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